सारे जमाने की नजरों से ढले थे हम ।
सही थी जलालत-औ-रुसवाई सारे जहां की ,
फ़िर भी इरादे से अपने ना हिले थे हम ।
जुदा करने की हमें लाख कोशिशों के बाद भी,
शहर की पुरानी गलियों मे फ़िर मिले थे हम ।
सारे खंजर हो गए थे खून के प्यासे ,
बचकर काफ़िरों से किसी तरह निकले थे हम ।
बडी बेरहम है दुनिया ये जालिमों की।
जख्मों को अपने किसी तरह सिले थे हम ।
बडे बोझिल थे जुदाई के वो लम्हे, मगर
मिलने के बाद फ़ूलों की तरह खिले थे हम ॥
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